नारद: September 2013

Saturday, September 28, 2013

देहाती औरत न्यूयार्क मे


मनमोहन जी न देश कि जनता का मन मोह पाए न ही अपने युवराज का. एक तरफ जहाँ वो यू एन ओ मे अपने रोबोटिक्समय अंदाज मे अटलजी का पुराना भाषण दोहरा कर कुछ नया करने कि जहमत उठाने कि कोशिश नहीं कि, वहीँ दूसरी तरफ भारत मे  राहुल जी उनके मसौदो को नोंसेंस कह के कह उनका सम्मान बढ़ाया. जी हाँ सम्मान ही है, क्योकि कोंग्रेस मे "राहुल सत्य और सब मिथ्या"  है.
  • राहुल जी अब "दोनों हो गए है" पक्ष - विपक्ष दोनों" अभी तक पब्लिक इनको बीच का समझती थी. राहुल जी मस्त मौला आदमी है, उनकी पार्टी है उनकी सरकार है और उनकी सरकार क्या करती उससे उन्हें सरोकार नहीं रहता, अब उन्हें अपने चुटकुलों से फुर्सत मिले तब न. उनकी हरकते देख लगता है वह एक  जल्द ही "फाडू गैंग बनायेंगे" जगह जगह जा के फाडते रहते हैं, लेकिन इस बार के बयां से उन्होंने कोंग्रेस कि ही फाड़ दी है लेकिन कोंग्रेसी खी खी खी कर के मस्त हैं, कोइ नहीं अपने मालिक है, फाड़े या चीथे उससे क्या, लेकिन बेशर्मी कि हद तब हो जाती है जब  इस "फाडू एक्शन" को लोकतंत्र का नाम दिया जाता है. 

    खैर कोंग्रेस मे कुछ भी हो सकता है. एक तरफ जहाँ राघव जी जैसे लोग बी जे पि से भगाए जाते हैं, वही  दूसरी तरफ अपने संवैधानिक पदका दुरूपयोग कर  ग्रांड मस्ती फिल्म बनाने वाले मनु सिंघवी को प्रवक्ता बना दिया जाता है. कोंग्रेस अनन्त, कोंग्रेस कथा अनन्ता. 

    युवराज के इन हरकतों से मनमोहन जी का छोटा सा कद और लिलिपुटमय हो गया है , यहाँ तक इंटरनेशनल मिडिया भी उन्हें झंडू समझ कर कुछ भी कह रही है. और ये गलत भी नहीं, क्योकि  जिस लुगाई का घर मे ही न इज्जत हो उसको बाहर वाले क्या समझेंगे आप लोग ही बता सकते है. 

    मनमोहन जी जब  यू एन ओ मे पूर्व प्रधान मंत्री अटल जी का पक्ष रखने के बाद पाकिस्तान के  प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ ने मनमोहन को "देहाती औरत" कहा. जो काना फूसी करने कि आदत रखती है. निश्चित ही नवाज को पता है कि मनमोहन कि इज्जत भारत कि जनता मे ही नहीं बल्कि उनके पार्टी मे भी दियो कौड़ी कि है जिसका एक्शन नॉन सेन्स कह के कूड़े मे डालने का सुझाव उन्ही के पार्टी के मालिक कहते हैं. ये देहाती औरत वाली बात  इंटर नॅशनल मीडिया मे उछला है ये इनदिन मिडिया नहीं दिखाने वाली, क्यों ? आप समझदार है समझ जाईये, हाँ सोशल मिडिया जरूर बता रही, शायद इसीलिए सरकार  शोशल मिडिया पे इतना भन्नाती रहती है. 


    मनमोहन कि  स्थिति उस लडकी कि तरह हो गयी है, जो अपने प्रेमी के साथ मा बाप के खिलाफ  घर से भाग चुकी है लेकिन प्रेमी भी दगाबाज निकला और  नॉनसेन्स कह उसे करनी को दुत्कार दिया. 

    अब देखना है इंटरनेशनल देहाती औरत भारत के एक पार्टी के "रखैल" बनते है या  या गरिमा बचाने के लिए अपने मर्द के मुह पे एक जोरदार तमाचा मार अपना गौरव वापिस लाते है. हालाकि  मुश्किल ही दीखता है. 

    सादर 

    कमल कुमार  सिंह 

Wednesday, September 18, 2013

नक्सलियों की तरह घात लगा के हमला किया

जगह : मुजफ्फर नगर का एक गाँव, 

आयोजन , एक महापंचायत , 

कारन ? : एक शोहदे ने एक लड़की को छेड़  दिया था,हालाकि  ये उसका रोज का काम था. लड़की ने ये घटना  अपने भाईयों को  बताया, भाईयो की उन शोहदों से कुछ कहा सुनी हुयी, मार पिट हुयी. नतीजन, उन शोहदों ने उन दोनों लड़को सचिन और गौरव की पिट पिट कर हत्या कर दी.  पीड़ित के माँ बाप पुलिस स्टेशन जाते हैं,  पुलिस कोई एक्शन नहीं लेती, वो सिर्फ इसलिए इस शोहदे मुसलमान थे. फिर एक पीड़ित की की तरफ से एक पंचायत करने का विचार हुआ, जिसको प्रशाशन ने रोक दिया. वही जुम्मे की नमाज के बाद मुसलमानों ने पंचायत का आयोजन किया ( ध्यान  रहे सारे दंगे जुम्मे की नमाज के बाद ही होते है, क्योकि वह एक उपयुक्त समय होता है एक साथ "अड्डे " पर जुटने का ), जिसमे सरकार के लोग भी शामिल थे . पीड़ित पक्ष को नाराजगी  हुयी, फिर उन्होंने भी पंचायत करने की ठानी, अब चुकी प्रशाशन ने "दंगाईयो की पंचायत होने दी थी ,सो वो इसको नहीं रोक पाए. 


 पंचायत से वापसी के समय , जुम्मे वाली पंचायत ने रंग दिखाया, निहत्थे पीड़ित पक्ष के पंचायती जब लौट रहे थे, तब उन पर अल्लाह के बन्दों ने मस्जिदी आदेश  की तामिलो के तौर पर, हमला बोल दिया, हमला ठीक वैसा ही जैसा  किसी ज़माने में कह्स्मिर में हुआ था, इस हमले में एके ४७ तक का इस्तमाल हुआ, हिंदुवो को काटकर नाहर में फेका जाने लगा, उस दिन उस नहर में पानी की जगह हिन्दुवों का खून बहा. शायद ये खून अल्लाह के काम आये या न आये लेकिन आजम खान इसी ताक में थे की अपने वोट की खेती इन्ही हिंदुवो के खून से सींचेंगे, मुसलमानों के गुस्से की खाद डालेंगे, फिर फल पकेंगे, और वही चक्र. 

लेकिन आजतक वालो ने गुड गोबर कर दिया. अब आजमखान साहब अपना सा मुह ले के कालिख से बचाने की कोशिस कर रह है. 

लेकिन इसमें गलती किसकी ? मुसलमानों की ? तो हाँ है, लेकिन इसमें आश्चर्य क्या ? ये उनका स्वभाव है.  इसलिए मई उनका कोई दोष नहीं देता. 

प्रशाशन की : बिलकुल, लेकिन आश्चर्य होता है, की एसा क्यों ? क्यों कोई प्रह्सश्निक अधिकारी इस तरह की बात मान सकता है , लें शायद उनके भी हाथ में कुछ नहीं रहा होगा, ट्रान्सफर होने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता कम से कम उस स्थान पे . 

मिडिया की : सबसे जादा और १००% ,  मुल्ला- यम की पूत्र की सरकार  जब से पुत्तर प्रदेश में आई, तब से कोई छोटे बड़े ५० से भी जादा दंगे हो चुके है. लेकिन  मिडिया इसको खाती रही. चुप रही, भगवान् जाने किस सौहार्द्य बिगड़ने के डर से ?  और इससे कुरानी फरिश्तो की  हिमाकत बड़ी , नतीजा सामने है. 

मीडिया आज भी यह नहीं बता रही की की  वह ए के ४७ का क्या हुआ ? कहा से बरामद हुआ ? उस पर कोई कार्यवाही हुयी या नहीं ? या मिडिया भी मानती  है की समुदाय विशेष के घर में ए के ४७ पाया जाना मामूली घटना है ठीक वैसे है जैसे किसी के घर में चमच्च, कढाई या पौना -कलछुल पाया जाना, यदि मानती तो शायद बताती. लेकिन मिडिया को अछ्छी तरह से मालुम है. 

हमें नहीं  चाहिए  एसा सामजिक सौहार्द्य, नहीं चाहिए हमें भाई चारा जब कीमत सिर्फ एक तरफ़ा चुकानी  हो, हर जगह , हर तरह से और हमेशा. क्योकि  भाई चारा इंसानों में की जाती है, डाकुवों और आतंकवादियों से नहीं, 

पागल कुत्तों  ने घात लगा कर शेर को काट लिया है,  देखते हैं शेर के पंजे से कब तक बाहर  रहता है. 

 कुछ जादा पढने के लिए डी एन ए का लिंक क्लिक करे .
http://www.dnaindia.com/india/1888043/report-dna-special-jolly-canal-killings-triggered-the-muzaffarnagar-riots

सादर
कमल कुमार सिंह 

Sunday, September 8, 2013

सेकुलरों का राजधर्म



मैंने टी वी पे कई फिल्मे एसी देखि जिसमे डाकू का एक गिरोह होता है, और इन डाकुवो का एक अड्डा भी होता है, वो सारे डाकू हफ्तों तक भेस बदल कर इधर उधर लूट, पाट हत्या करते है, लेकिन सरदार के नियम के अनुसार एक निश्चित दिन इकठ्ठा हो सरदार को सब कुछ अर्पित करते है, फिर उनका हिस्सा बाटा जाता,

 कभी कभार उसी "अड्डे"  पे कई योजनाये बनती है, कहाँ कब कैसे लूट पाट  करनी है ? कहाँ कब किसकी हत्या करनी है , कौन कौन उसके रास्ते मे आ रहा है? और अड्डे से निकल कर होता है हमला. लूट पाट, मार काट, बालात्कार, आगजनी. और ये सब करने के बाद जब पुलिस दौडाए तो वापीस अड्डे मे घुस जाना और वही से गोली बारी करना. 

 इनके सरदारों को सेट्टिंग भी होती थी, गाँव के कुछ सांपो जैसे विषैले लोगो से  सांठ गाँठ, डाकू उसको प्रधान बनाने मे मदद करते और और ये उन डाकुवो कि पुलिस इत्यादि से बचाने संरक्षण देने मे. इनकी मंशा पुरे इलाके - क्षेत्र मे अपना अधिकार जमाना होता है, डाकुपन फैलाना होता है जिसमे हार्डकोर का काम सम्हालते है "अड्डे वाले" डाकू और सोफ्टकोर यानि जनता जनार्दन के बीच कि कड़ी होते हैं संपोले  विषैले जैसे इंसान दोनों कि मंशा एक ही होती है राज करना., जब कभी जनता संपोलो से गुहार लगती है कि आप तो चौधरी है हमने  आपको जिताया है आप हमरी रक्षा करें तो संपोले दलील देते हैं , वो डाकू भी हमारे भाई है, हम उन्हें मुख्य धारा मे लाना है, आदि आदि, गाँव वाले बिचारे अपना सा मुह ले के चुप होते है, वही डाकू अपना डाकूपण दिखाते हुए न जाने किस प्रकार कि "हक" कि बाते करते है. 

और ये खेल चलता रहता है, गाँव के सीधे साधे लोग इन मुठ्ठी भर  डाकुवों और संपोले के खेल मे पिसते रहते हैं, लेकिन उनका सीधापन ही उन्हें खाता रहता है, वो जादा होने के बावजूद भयग्रस्त रहते हैं,  क्योकि उनका स्वभाव लुट पाट, हत्या बलात्कार नहीं होता, न ही वो कर सकते है,  तभी कहीं से कोई बागी बनता है, वो गावँ वालो को एक करता है, फिर भी उसके खिलाफ प्रपंच चलाये जाते है, परेशानियां खड़ी कि जाती है, गाँव वालो को डराया धमकाया जाता है, लेकिन फिर भी विजय उसकि होती है क्योकि वो  सत्य के साथ होता है 

एसी फिल्मे आपने भी कई देखि होंगी, और इस तरह के कई कहानिया सुनी होंगी,  होंगी ??  अरे होंगी क्या ? अभी लाईव देखिये न .. अभी भी तो दिख ही रहा है.. नहीं ?? 

साम्प्रदायिकता का सांप ऐसा है जो किसी भी विकास को डस लेता है. और इस देश मे एक तबका ऐसा भी है जो चोरी के बाद सीना जोरी भी करता है, और जब तक उस सीने पे वजनी बठ्करे से प्रहार नहीं किया जायेगा तब तक वह तबका सीनाजोरी कर सर उठाता रहेगा. 

इन तत्वों को सहारा देते जो दीखते हैं जो अपने को सेकुलर कहते हैं, सांप के जहर का इलाज है लेकिन सेकुलरों का नहीं, यदि आपके एक दरवाजे पे एक कुत्ता और एक सेकुलर आ जाय तो कृपया कुत्ते को रोटी दें, लेकिन अब आप कहेंगे कि कोई सेकुलर तुम्हारे दरवाजे पे आयेगा क्यों ? तो आते हैं भाई, बिलकुल आते है, यूपी वालो के दरवाजो पे श्वान समूहों ने स्वांग रचकर रोटी ले ली, खा के मोटे और ताकतवर हो गए, सत्ता मिल गयी, अब वहाँ क्या हाल है पूरा देश देख रहा है.  कमोबेश अधिकतर सेकुलर पार्टियां यही करती है, 

जम्मू कश्मीर के किश्तवाड मे भी सेकुलरों का राज है, वहाँ क्या हुआ आज तक किसी को पता नहीं, और मिडिया उस समय एक बधूवा मजदुर दिखी  जिसके हाथ पाँव ही नहीं काट दाये गए बल्कि जीभ तक काट के उसके कानो मे भर दिए गए ताकि वो न बोल सके न सुन सके, मिडिया ने खुद अपने बैन का मुद्दा तक नहीं उठाया, कही कोई चर्चा नहीं. वहाँ भी शुरुवात एक सेकुलर स्थल से हुयी थी. अब समझ मे आता है कि क्यों  अमेरिका पुलिस द्वारा सेकुलर स्थलों कि निगरानी करने कि पहल कि गयी. भगवान जाने भारत सरकार को कब अक्ल आयेगी.  पता नहीं गुजरात कि तर्ज पे किश्तवाड के लोगो को सजा कब मिलेगी ? फिर भी ये सेकुलर है. इनका "नॉन सेकुलरों"  को साम्प्रदायिक कहना कुछ वैसा ही लगता है जैसे किसी  वेश्या का किसी दूसरे नारी के चरित्र पे अंगुली उठाना. 

पिछले साल यूपी मे रमजान के दौरान हर लगभग हर शुक्रवार और उस महीने मे कई दंगा हुआ, और शुरू होता था सेकुलर स्थल से, माफ करिये जहाँ से लोग निकल कर इतने उन्मादी हो जाए वह सेकुलर स्थल डाकुवों के अड्डे से कम नहीं, और न हीं उसको  किसी भी प्रकार स्थल मानना चाहिए, हाँ उसको "अड्डा" कह सकते हैं, जैसे कुछ अड्डे चम्बल मे डाकुवो ने विकसित कर रखे है, जहाँ सबकी जाने मे रूह कांपती है क्योकि उनका  भी धर्म अलग है, "डाकू धर्म" उनपे भारतीय कानून काम नहीं करता. इसलिए उनके अपने वहाँ अपने डाकू धर्म के कानून होते है, और सरकार ये नहीं कह सकती कि चम्बल या एसी जगहों पे जहाँ डाकू रहते हों वहाँ सिविल कोड ही होने चाहिए. क्योकि सरकार वही है जिन विषैलों कि बात ऊपर सीन मे कि गयी थी. 


हाल मे मुजफ्फरनगर मे एक लड़की को छेड़ने कि घटना का का विरोध करने पे दो भाईयों को पिट पिट कर मार दिया गया, उसके विरोध के लिए पंचायत बुलाई गयी, लेकिन एम्बुश लगा के उन पर आक्रमण किये गए वो भी अत्याधुनिक हथियारिओं के साथ. और तो और एफ आई आर उन मा बाप के खिलाफ लिखा गया जिनके बेटी,बेटो कि हत्या हो गयी.  

मिडिया तब तक चुप थी जब तक मामला सोशल मिडिया मे जन के नहीं उछला, ये तो उसको भी पचा जाते "खास किस्म के चूरन" के साथ लेकिन मामला तब बिगड गया जब एक मुस्लिम और हिंदू पत्रकार मारा गया. और दिखाया भी है तो खाने के बाद बस एक पाचक कि तरह, असली खाना तो इनका अभी आश्राम बना है, शायद आशाराम  जैसा इंसान इनके लिए जादा महत्वपूर्ण  बजाय कि दसियों जानो कि चिंता करने कि, इस समय मिडिया का सबसे बड़ा दुःख ये है कि ये हालत गुजरात मे क्यों नहीं बन रहे ? 

बावजूद इसके धर्म निरपेक्षता , गंगा जामुनी तहजीब और भाई चारा का हवाला दिया जाता है, गंगा -जमुनी तहजीब समझ मे नहीं आता ?  वास्तव मे  "गंगा - जेहादी" तहजीब सही टर्म है. क्योकि गंगा तो समझ मे आता है जो एक तहजीब से संबंध रखता है और दूसरा जेहादी और जेह्दाइयों का कोई धर्म नहीं होता. क्या अब  भी गंगा - जामुनी तहजीब कहना वाजिब है ? 

रही बात भाईचारा कि तो भाड़ मे जाए एसी भाईचारा जिसमे एक पक्ष बस "भाई" कहता रहे और  भाई दूसरे पक्ष को "चारा" मान उसका मनमानी तरीके से भक्षण करता रहे.  

खैर ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक हम सब एक न  हो जाएँ और एक होकर उस गाँव वाले बागी को नेता मान कमान सौंप  दें ताकि इन सांपो के जहर का इलाज और डाकुवो को आत्म समर्पण करवाया जा सके और गाँव मे सुख और शांति आये. 

सादर 

कमल कुमार सिंह.