नारद: कस्तूरी

Wednesday, August 22, 2012

कस्तूरी


आज अंजू जी और मुकेश जी की सम्पादित काव्य संग्रह "कस्तूरी" का उद्घाटन था माफ करिये लोकार्पण था. उद्दघाटन और लोकापर्ण मे बड़ा अंतर है, यदि कोई जूता व्यवसाई किसी नेता- मंत्री शुभारम्भ करवाता है तो उद्घाटन होता है, बिचारा निरीह नेता  खुद नहीं जान पाता, यही जूते आगे उसके पड़ने वाले है, और जब लिखने पढ़ने वाले चीज का शुभारंभ किसी साहित्यकार के हाथो हो तो  लोकार्पण कहलाता है, लोकार्पण अर्थात लोक को अर्पण यानि हे लोक वालो ये लो एक और किताब जिसमे घोटालों के कोई दस्तावेज नहीं है तो आशा ही है शायद पसंद आये, क्योकि आजकल चर्चा भी घोटालों वाले किताबो को मिलती है, न की अंतरात्मा की चीजों को, मिले भी क्यों ?? अंतरात्मा की चीजे है अंतरात्मा मे रखो लोक को अर्पण  करने का क्या मतलब है ?? अब लोक का टेस्ट बदल चूका है, अब लोक घोटालात्मक चीजों को अपने अंतर्मन मे बसने लगे है.  

पुस्तक का लोकार्पण प्रोफ़ेसर नामवर जी के हाथो होना था, समय नियत था, लेकिन ये इंडिया है, एक तो प्रोफ़ेसर दूजे हिंदी का यानि "तीत्लौकी दूजे नीम चढा" लेकिन फिर भी हिसाब किया जाए तो नामवर जी नियत समय से पहले आये. क्योकि जाते ही मैंने हिसाब लगा लिया था, एक प्राईमरी स्कुल का मास्टर रोज दो घंटे लेट जाता है, साथ की जगह पांच घंटे पढाता है, हाईस्कुल वाला, तीन घंटे, इंटर वाला रेसस के बाद, और कॉलेज वाला सप्ताह मे तीन दिन, प्रोफेसर बात ही निराली, जब मूड किया तो ठीक  नहीं तो खाली समय आपका है अपना मूड बना लो. 

पहुचते ही अंजू जी नमस्कार किया, आशर्वाद स्वरुप उन्होंने भी मुझे एक अध्यापक से परिचय कर दिया, बात चीत से पता चला आप भी कवि है, गजल लिखते है, अच्छा लगा, यानि सही हाथ मे पड़ा गया, मेरा कोई दुरपयोग नहीं हुआ. हम अगली पंक्ति मे थे, बड़ा असहज महसूस हो रहा था, जिंदगी भर से जिसको पीछे बैठने की आदत हो और उसे आगे बैठा दिया जाना एक प्रकार से मानसिक आघात देना है जैसे किसी दलित को उठा चारपाई पे बिठा देना. मौका ताड़ तत्काल दलित बन पीछे की सीट पकड़ लिए. इससे नजर पैनी होती है. पीछे जाने पे नजर पड़ी की अतिथि पंक्ति मे नाम पट्टिकाएं छः थी और कुर्सियां सात, कहीं ये किसी नेता परेता की संगोष्ठी होती तो कुर्सियों के लाले पड़ जाते.   फायदा ये की सुजान जी बातचीत भी सुभीते से होने लगी, उन्होंने भी अपनी एक पुस्तक "सीने मे आग " सप्रेम भेंट की जिसपे नजर डालने पर लगा की वास्तव मे उम्दा संग्रह है.  आपका नाम है सुजान सिंह. मौका मिलते ही मैंने अपनी शंका का संधान करना चाहा, 
"आप अध्यापक है, बच्चो को बहुत पिटते होंगे" 

"नहीं तो, आप ऐसा क्यों पूछ रहे हो ?" 

"मैंने सुना जब बच्चो की गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाती है, बच्चे फूल टाईम घर पे रहने लगते है तो अध्यापक जमात अपने बच्चो पर पिटाई का रिहल्सल करती है ताकी अगला सीजन अच्छा जाए" 

वो जोर जोर से हसने लगे. 

संचालक महोदय ने सभी कवियों को ढाई मिनट का समय दिया, ये बड़ा अन्याय था, कम से कम दस मिनट का होना चाहिए था, कौन जाने सोचा हो आजकल लोगो मे सहने की क्षमता कम है, लेकिन ऐसा नहीं था, यहाँ जो भी आये थे दिल पे पत्थर रख नहीं बल्कि काव्यानंद लेने आये थे. 

सब बारी बारी से पानी कविताये पढ़ने लगे, इस तरह की संगोष्ठियों  के लिए मै पहला था, या यूँ कह लीजिए के ये मेरे लिए पहली संगोष्ठी थी, पता नहीं था ताली कब कब बजाना है, सो मै हर बार बजा देता, ताकि सब मे फिट हो जाए. 

कुछ कवि लेखक अपने लिखित भाषण के साथ अपनी जमा पूंजी स्वरुप बच्चे भी लाये थे, बच्चे क्या बल्कि कह ले पुरे सोलह आना ब्रह्मास्त्र  थे, ऐसे छूटते  की ब्रम्हा भी तहस नहस होने से नहीं बचा सकता था,  जो कुर्सियां किसी तशरीफ़ के इन्तजार मे थी, वो सब अलट पलट गयी,  फालोड बाई रोनागान, तभी उनके तरकश प्रकट हो जाते और ब्रह्मास्त्र  तरकश के साथ हाल से बाहर हो जाता.

भाषण,कविता पढ़ लेने के बाद कवियों के मुख मंडल एक विशेष प्रकार की आभा आ जाती, संतोषजनक संतोष छा जाता मानो  बीस सदस्यों वाले घर के एक मात्र बाथरूम से कोई सफलता पूर्वक निकल आया हो. 

आयोजन बेहतरीन तरीके से सम्पन्नता की ओर पहुँचा, सुजान जी पहली बार मिले थे इन्हें हरियाणा जाना था,  इनकी धैर्य परीक्षा लेने के लिए मै इन्हें  हिंदी भवन से रेलवे स्टेशन तक इन्हें पैदल ही पंहुचा दिया, मैंने वहाँ से ऑटो ली घर आ गया. आशा है सुजान  जी पहुच गए होंगे. कस्तूरी पुस्तक कल आर्डर होगी मेरे फ्लिक्पार्ट  एकाउंट से, इसके बारे मे पढ़ने के बाद लिखूंगा. 

निमंत्रण के लिए अंजू जी को हार्दिक धन्यवाद. 

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