नारद: पुलिस कि कृपा और हमारा अन्याय

Saturday, June 30, 2012

पुलिस कि कृपा और हमारा अन्याय


रविवार का दिन था जिसको मै अफसर डे कहता हूँ, बस सोते रहो, न काम की चिंता न दुनिया कि फिक्र, फरवरी का महीना वास्तव मे मैंने इस महीने का नाम "प्रधानमन्त्री"  रख दिया था.  दिन मे तेज धूप के साथ हलकी,  नम्र ठण्ड का मिश्रण बिल्कुल अपने प्रधानमन्त्री कि तरह सुहाना लगता है. दिन मे धूप तेज है तो क्या, खुशनुमा ठण्ड भी तो है गर्मी को कवर करने के लिए. इसी महीने मे नवयुवक नवयुवतिया भी नए खोज कि  तयारी मे रहते हैं. "बीती ताहि बिसार दे, आगे कि सुध ले" कि तर्ज मे नए पैतरे अपनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ते, शायद इस कारण भी  मुझे इस महीने को प्रधान मंत्री कहना ठीक लगा.

सुबह उठा तो याद आया कि आज बहुत से कार्य करने हैं, प्रधानमंत्री महीना खत्म होने है,  कूलर कि व्यवस्था करनी,  गर्मी वाले कुछ कपडे लेने हैं जिसपे लिखा हो लुक मी  / "सी मी", या हिट मी . 

बाईक कि ओर बढ़ा तो जूते ने कहा, "भाई कदम थोडा सम्हाल के कदम डालो, दूसरों को दो हजार का बताने से मै उस लायक थोड़े न हो जाऊंगा मुझे अपनी औकात मालुम है, दीदी कि तरह जादा प्रेशर मत डालो नहीं तो अभी टे बोल् दूँगा, आसपास कोई प्रणव जैसा दक्ष मोची भी नहीं जो हमारा गठबंधन कर दें" मै चौंका, जूता वास्तव मे ज्ञानी था, जिस दुनिया मे लोग बढ़ा चढा के कुछ भी बोलते हैं वहाँ इस प्रकार के सत्यवादी जूते कि सत्यता कुछ सोचने को मजबूर करती है.  

खैर मैंने कदम सम्हालते हुए बाईक पे बैठा ही था, कि आवाज आई "मर गया "  मै फिर चौका, अब क्या हुआ तुझको ?? बाईक के दिल से आवाज आई थी.
"तुम बहुत वजनी हो गए हो, एक तुम्हारा वजन दूसरा  मेरे स्टालमेंट  का" - बाईक ने बोला  ,
तुझे उससे क्या स्टालमेंट  का बोझ तो मेरे ऊपर है तू क्यों चिल्लाता है ?? 
तभी तो दुगुना वजन हो गया है तुम्हारा, आजकल आदमी अपने वजन से कम और  स्टालमेंट के वजह से जादा वजनी हो गया है. 

कैसे दिन आ गए हैं मेरे आजकल निर्जीव भी आँखे दिखाते हैं, 

अभी थोड़े देर गया ही था कि रेड लाईट आ गया, मैंने गाडी रोक दी, चौराहे  के आसपास का दृश्य देखने लगा, रोड के दूसरे छोर पर बने पार्क मे चार छह जवान लडके लड़किया एक लाइन से बैठे हुए सन्यासीयों से विचार मग्न थे, जैसे देश के किसी गंभीर मुद्दे पे चर्चा करने वाले हों. उनको देख  मेरा भी मन होता कि काश मुझे भी देश कि सम्स्यायो पे गंभीर होने का मौका मिले, लेकिन अकेला चना कभी भाड़ फोडता है ?? 

थोड़ी दूर गया  हूँगा कि सफेदपोश ने मुझे रुकने का इशारा दिया, मैंने गाडी रोक दी, 
लाईसेंस दिखाओ : ट्रैफिक  वाले ने कहा , 
सीट के नीचे से निकाल  दे दिया, 
रजिस्ट्रेशन दिखाओ कह के मेरे पीछे वाले जेब कि तरफ देखने लगा ,वो भी मैंने सीट से निकाल के दे दिया, वो थोडा मायूस हुआ, 
आजकल के लडके रजिस्ट्रेशन तक सीट के नीचे रखते हैं, कही खसक वासक गया तो, अरे पर्स मे रखना चाहिए ."जी "  मैंने समर्थन कर दिया. 
चलो अब इन्सुरेंस दिखाओ, 
मैंने देदिया , 
ये तो परसों ही खत्म हो गया है,:  ट्राफिक वाला 
मै घबराया, हाय रे बुध्धि परसों तुझे याद क्यों आया, साले जूते अपनी औकात बता देते हैं, बाईक अपना रोना रो देता है तू ये तो भविष्य वाली है , इसके कंठ क्यों न फूटे ??? 
तू जूते का ख्याल रखता है, गाडी भी रोज साफ़ करता है, और मुझे पुरे साल मे  आज दूसरी बार आजाद किया अछ्छा है, फस जा तू, "इन्सुरेंस बोला " 
सफेदपोश मानो कह रहा है, अब फसें बच्चू , अब कहाँ जाओगे ? हमसे तो अछ्छे अच्छे नहीं बचे, तुम तो अभी बच्चे हो . 
ध्यान नहीं था सर, कल कि रीन्यू कर लूँगा : मैंने ट्रैफिक वाले को सफाई दी. 
काल करे सो आज कर आज करे अब होय, उसने कहा 
लेकिन आज इतवार है ओफ्फिस बंद रहता है, आज जाने दीजिएगा, कल चाहें तो मै आपके पास हाजिरी लगा जाऊंगा इन्सुरेंश के साथ. 
ये जुर्म पता है, पता है कितने का जुरमाना है ???  जाना है तो जाओ, लाईसेंस और रजिस्ट्रेशन छोड़ जाओ,  बस ये चालान लेते जाओ.
मैंने कहा ठीक है, कल आता हूँ, आप चालान काट दो.
उसने तिरछी नजर देखा "चालान सच मे कटवाओगे " ???
और कोई चारा भी तो नहीं है, मैंने कातर शब्दों कहा.

भाई देख चालान होगा, मामला कोर्ट मे जायेगा, तुझे वहाँ आना होना, ढेर सारा झंझट है, जो भी हो हम आखिर हैं समाज सेवक, सरकार हमें इसी बात के पैसे देती. एक काम कर थोड़ी कृपा कर और मामला यही रफा दफा कराते हैं. अच्छे घर के बच्चे कोर्ट कचहरी के चक्कर मे नहीं फसते .
दिखने मे तो अछ्छे घर से दीखते हो .

मेरा दिल धडका , जब कोई बडाई करे तब समझ लीजिए कि कुछ गडबड है , इनके अच्छी घर  से दिखने का मतलब  मोटा बकरा होता  है , जैसे मुल्ले साल भर पाल पास के बड़ा करते है , उसे पुचकारते हैं , बहुत बढ़िया है कहते हैं  उसे बकरीद को कट देते हैं , फिर कहते हैं बकरा बड़ा स्वादिस्ट था , बकरा बिचारा भी बहत्तर बकरियों के चक्कर खुशी खुशी  कट जाता है. 

"मतलब ??"  मै चौंका,
मतलब सरकारी परम्परा का निर्वाह करो, और झंझट से दूर रहो, परम्परा का निवाह करो , कुछ करो !.
लेकिन सर ये गलत है,आप रिश्वत कि बात कर रहे हो, ये तो सरकारी खजाने को नुक्सान पहुचाना है, मै अच्छे घर से हू नियम कानून जानता हूँ. आप चालान काटो खाने के चक्कर मे मत रहो. 

अच्छे घर से हो तो देल्ही क्या करने आये हो ?? वही रहते , खैर एसी भाषा का मै यहाँ अभ्यस्त हो चूका था, इन बातो पे मै बस एक ही बात समझाता, भाई देल्ही का इतिहास इतनी बार बदला गया है कि दो  प्रतिशत  के बाद यहाँ का कोई है या फिर फी जो ये कहता है तो मान लिया जाए कि वो मुगलों कि संतति है या अंग्रेजो का फल, मेरी दूसरी दलील इससे भी जादा खतरनाक वाली होती: माँ कि कोंख तो स्वर्ग होती है, न कोई चिंता, न फिक्र, माँ जो खाए चुप चाप उसी मे से मिल जाता है, फिर क्यों नहीं वही पड़ा रहता ?? क्यों बाहर  आ गया, अब जो तुझसे बचता है वो माँ खाती है. यही दोनों दलील मैंने पोलिस वाले को सुना दी . 

ट्रैफिक वाला भडका : अरे भाई खिलाया है तब खाते हैं, कही पुन्य किया, जिसको पैसे दे के पुलिस मे भरती हुआ उसने उस पैसे से गाँव मे मकान बनवा लिया, मैंने पुन्य किया, उस बिचारे के पुरे परिवार को छत दी है, इसी पुन्य के प्रताप स्वरुप मुझे ये नौकरी, नौकरी मिलने के बाद अपने वरिष्ठ के हित मे किया, पुन्य किया, उन्होंने मेरे पुन्य से नयी कार ली, तब यहाँ हूँ, जीवन मे तरना चाहते हो कि नहीं ?? तब तुम् भी कुछ पुन्य करो और परम्परा का निर्वाह करो. आज दुनिया पूजा और पुन्य पे तो टिकी है, नहीं तो तुम जैसे अधर्मियोंम के कारण पृथ्वी २००५ मे ही खतम हो गयी होती.. जिसको हम जैसे धर्मात्मा लोग अभी तक खींचते चले आते हैं.

इसने पुन्य कि परिभाषा ही बदल ही थी,  मुझसे पुन्य करवाने के लिए  अथक परिश्रम किया लेकिन, लेकिन मै ठहरा अधर्मी अन्यायी, चालान कटवाया घर आ गया.

इस बात को पुरे चार हो गए, तब से मैंने अपनी गाडी को हाथ नहीं लगाया, धीरे धीरे पेट्रोल के दाम बढ़ाने लगे, अब मै उस पुलिस वाले को धन्यवाद देता हूँ, नहीं तो न जाने अब तक कितने रूपये फूंक चुका होता, अनजाने मे ही ट्रैफिक वाले ने मेरा ऊपर बड़ा उपकार किया और मुझे अपराधबोध होता है उस अन्याय का जो मैंने उस ट्रैफिक वाले के साथ किया.
सादर ,
कमल कुमार सिंह . 

5 comments:

रविकर said...

सटीक ।।

आभार ।।

मनोज कुमार श्रीवास्तव said...

सटीक व्‍यंग्‍य, व्‍यावहारिकता से लबालब,

खास तौर से आपकी दूसरी दलील, मुझे बहुत अच्‍छी लगी

माँ कि कोंख तो स्वर्ग होती है , न कोई चिंता , न फिक्र , माँ जो खाए चुप चाप उसी मे से मिल जाता है, फिर क्यों नहीं वही पड़ा रहता ?? क्यों बाहर आ गया , अब जो तुझसे बचता है वो माँ खाती है.

रविकर said...

यह है शुक्रवार की खबर ।

उत्कृष्ट प्रस्तुति चर्चा मंच पर ।।

विनोद सैनी said...

आपका लेख कहि तक सत्‍य है मै खुद एक पुलिस वाला हू ऐसे वाक्‍यो से सामना कम हि हुआ है पर यह गलत है कि पुलिस वाला ही रिस्‍वत लेता है क्‍यों कि पुलिस आम जन से सीधे जुडी है इसलिये ऐसा लगाता है वरना नेता लोग क म नही है और हर काई अपने फायदे के लिये पैसे देता है चाहे कोई भी हो ।
आपका लेख व्‍यंग्‍य के रूप मे है या नही कुछ समझ आना कठिन हो रहा है खैर ।।।।।
मेरे ब्‍लाग पर भी पधारे ब्‍लाग को ज्‍वाईन कर लिया हे आप भी करे तो खुशी होगी

यूनिक तकनीकी ब्लाग (इन नम्‍बरो पर कॉल मत करना )

रविकर said...

नारद झट झंझट करे, पहुँच जहाँ दरकार |
उत्प्रेरित जन-मन करे, जनहित से ही प्यार ||