नारद

Saturday, March 26, 2016

अब पछताय होत का ?


रामू बड़े भोले थे जैसा की आम भोली जनता, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से बाहर आ रहे थे, बड़े थके थे, पसीना चल रहा था, उनके पास एक बड़ी सी पोटरी थी, उसका भी वजन भारी था, लेकिन फिर भी धीरे धीरे चलना तो क्या घिसट रहे थे.

तभी उनके पास चेहरे से उनसे भी बड़ा भोला एक नेक नौजवान आया, “चाचा प्रणाम, बहुत वजन है ? लाईये मुझे दीजिये, मै ले चलता हूँ, आप आराम से चिंतामुक्त हो के चलें” नौजवान ने कहा.
चाचा ने भी उसकी तरफ एक नजर दौडाई, चेहरे से खासा शरीफ लगता था, और वो थके भी थे, सोचा नेक लड़का है, दे दी अपनी पोटली. 
“कहाँ तक जाना है चाचा है?” – नौजवान ने पूछा.

“कहीं नहीं नयी दिल्ली से पुरानी दिल्ली, रात रेलवे स्टेशन पे गुजरना है फिर तडके पुरानी दिल्ली से मेरी गंतव्य के लिए ट्रेन है.” – चाचा ने बताया.
“अरे तो रेलवे स्टेशन पे क्यों रुकेंगे ? अभी भी दुनिया में हम जैसे लोग है, लोग एक दुसरे के काम न आये तो कैसी जिंदगी? मेरा गेस्ट हॉउस पास ही है मेरा, चलये रात उसमे रुकिए, तडके होते ही मै आपको छोड़ आऊंगा”- नौजवान ने अपनापन दिखाया.

अंधे को क्या चाहिए? दो आँख. चाचा मान गए. और नौजवान के पीछे पीछे चल दिए. 
नौजवान ने खूब खाना खिलाया, शरबत भी पिलायी, फिर बिस्तर लगाया, चाचा भी निश्चिन्त हो सो गए.

“अरे उठो चाचा, सुबह हो गयी“ किसी ने हँसते हुए चाचा को उठाया, चाचा उठे- “तुम कौन “ और इस गेस्ट हाउस का मालिक कहाँ है ? नौजवान कहाँ है ?” 
“हाहाहा मै ही मालिक हु, लगता है हो गया काम आपका. कोई आपमें लकड़ी डाल गया और आप सोते रहे.


रामू चाचा ने अपने ऊपर नजर डाली तो समझ में आ गया की गेस्ट हाउस के मालिक के साथ वहां का नौकर क्यों हँस रहा है। उनके शरीर पर कपडे के नाम पर बस उनका कच्छा बचा था. पोटली गायब, गमछा गायब, खोंस में पड़े रूपये गायब, शरीर पर पड़ा कपडा गायब, बच गया था बस कच्छा. वो रोने लगे चिल्लाने लगे, लेकिन अब क्या हो सकता था, जो होना था वो तो हो चूका था.
दिल्ली का वोटर और वो स्टेशन वाले रामू, दोनों कच्छे में है इस समय, रो रहे हैं, अपने को गाली दे रहें, कोस रहे है, खिसिया रहे है, सर पटक रहे हैं, लेकिन "अब पछताए  होत  क्या,  जब चिड़िया  चुग  गयी  खेत" रहो, रहो कच्छे में.

सादर
कमल